26 नवंबर को हम संविधान दिवस मनाते हैं। 1949 में 26 नवंबर को ही संविधान पूरा होने के बाद हमारी संविधान सभा ने इसे अपनाया था। संविधान दिवस के दिन मुझे एक छोटा सा किस्सा याद आया।
---एक बार मैं रेलगाड़ी में सफ़र कर रहा था। सफ़र लंबा नहीं था इसलिए मैं सेकंड क्लास डिब्बे में यात्रा कर रहा था। गर्मी के दिन थे, दोपहर बीत चुकी थी। रेलगाड़ी में एक तरफ की खिड़कियों से तेज धूप आ रही है। खिड़की के पास वाले ज्यादातर यात्रियों ने धूप से बचने के लिए खिड़कियां नीचे कर रखी थी। मैं जब चढ़ा तो पूरे डिब्बे में लगभग सब लोग बैठे हुए थे। जनरल कोच में चार की जगह पर पांच या कहीं-कहीं छ: लोग भी बैठ जाते हैं।
मेरे अलावा बस दो-चार लोग दरवाजों के पास ही खड़े दिख रहे थे। मुझे एक सीट पर चार लोग बैठे दिखे। उनमें खिड़की की तरफ बैठे दो 25-30 साल के नौजवान रहे होंगे। वो दोनों अच्छा खासा फैलकर बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी बगल में सीट पर छोटा-मोटा सामान भी रखा हुआ था। मैंने बैठने का मौका देखकर उनसे सामान उठाकर सरकने को कहा तो खिड़की के पास वाला युवक बड़ी तेज आवाज में चिल्लाने लगा- इतनी गर्मी में कहां बैठोगे, जगह कहां है बैठने की?
हालांकि तब तक उसका साथी थोड़ा सरककर मेरे लिए जगह बना चुका था। मैं बिना कोई बहस किए आराम से बैठ गया।
मैंने देखा कि सामने वाली सीट पर खिड़की के पास दो बैसाखियां रखी हैं और वहां पालथी मारकर बैठा उनका मालिक गुटखा चबा रहा है। बीच-बीच में वो गुटखा चबाते हुए लगातार फोन पर बात भी कर रहा था। बैठने पर मेरा ध्यान गया कि उसने शायद गर्मी से बचने के लिए खिड़की के और अपने बीच में काफी जगह छोड़ी हुई है और वहां उसने अपना बैग रखा हुआ है।
वह लंबे रूट की एक्सप्रेस रेलगाड़ी थी इसलिए अगला स्टेशन आने पर डिब्बे में काफी लोग चढ़े। वहां से चढ़ने वाले यात्रियों में काफी लोग दूसरे राज्यों के प्रवासी मजदूर लग रहे थे। कुछ लोगों ने हमारे सामने खाली सीट देखकर उसकी तरफ बढ़ने की कोशिश की। पर हमारी सीट पर बैठे नौजवान ने अपनी कर्कश और तेज आवाज में दो-तीन लोगों को ऐसे ही दुत्कार दिया।
उसने बार-बार वही बात दोहराई- इतनी गर्मी है, कहां घुस रहे हो, यहां जगह नहीं है।
उसकी केवल आवाज ही नहीं बल्कि पूरा बदन ही मानो लोगों को दुत्कार रहा था। शायद वह नहीं चाहता था कि कोई उसके सामने वाली सीट पर बैठकर उसके फैले पैरों के साम्राज्य को सीमित करे।
सामने बैठे बैसाखियों वाले भाईसाहब को तो कुछ बोलने की जरूरत भी नहीं पड़ रही थी। उनको तो जैसे सफर में बिना कहे एक नौजवान बॉडीगार्ड मिल गया था, जो किसी को उनके नजदीक भी नहीं आने दे रहा था।
अभी डिब्बे में चढ़े यात्रियों की हलचल चल ही रही थी कि फिर एक कमजोर सी दिखने वाली महिला गोद में एक बच्चा लिए आई और उसने बैसाखियों वाले भाईसाहब से पूछा- आपके बगल की खाली सीट पर कोई बैठा है क्या?
इतने में फिर वही युवक चिल्लाया- क्या करना है इधर आकर? यहां कोई सीट नहीं है।
इतने में उस महिला का पति पीछे से दो और छोटे-छोटे बच्चों को लिए बोला- भाईसाहब बच्चे हैं, दूर जाना है, बैठ जाने दीजिए। पति दिखने में महिला से भी कमजोर लग रहा था। हालांकि यह भी एक युवा जोड़ा ही था, इनके बच्चे भी काफी छोटे ही लग रहे थे। लेकिन बगल में बैठे उस तेज-तेज चिल्लाने वाले युवक के बिल्कुल उलट इस शख्स की आवाज में कोई आशा, चेहरे पर कोई तेज, कोई क्रोध नहीं था। वह बस बार-बार प्रार्थना के स्वर में एक ही बात दोहरा रहा था कि भाईसाहब दूर जाना है, साथ में बच्चे हैं, बैठ जाने दीजिए।
तभी सामने से आ रही उस नौजवान की दुत्कार का उस शख्स की पत्नी ने जवाब दिया- हम आपसे कुछ नहीं कह रहे हैं, हमने उन भैया से पूछा है कि जहां वो बैग रखा है वहां कोई और बैठा है क्या? आप हमारे बीच में क्यों बोल रहे हैं? ये हमारा अधिकार है।
उस महिला ने फिर इसी बात को दो-तीन बार दोहराया- यह हमारा अधिकार है, आप क्यों बीच में आ रहे हैं?
यह बात कहते हुए वो महिला जरा भी नहीं झिझकी। उसके गाल पिचके हुए थे, उसके चेहरे का रंग सांवला ज़रूर था लेकिन ये कहते हुए उसके चेहरे से आत्मविश्वास का प्रकाश झलक रहा था।
ये शब्द सुनकर पहली बार उस युवक की ज़बान लड़खड़ाई। उससे कुछ ज्यादा बोलते नहीं बन रहा था। मुझे ज्यादा दूर जाना नहीं था इसलिए मैं खड़ा हो गया और वो महिला अपने बच्चे के साथ वहां बैठ गई। बैसाखी वाले भाईसाहब ने भी सीट से बैग उठाया और इस औरत के पति और बच्चों को बैठने के लिए जगह दे दी।
मैं खड़ा हुआ सोच रहा था कि कितना सुंदर शब्द है 'अधिकार'। कहां आज़ादी से पहले हमारे देश के अधिकांश लोग शायद अधिकारों के बारे में सोचते भी नहीं होंगे। लेकिन हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और हमारे संविधान ने हमें इस शक्तिशाली अहसास के साथ जीवन जीने का मौका दिया और आज यह शब्द धीरे-धीरे सब लोगों तक पहुंच रहा है। यह सब सोचते-सोचते थोड़ी ही देर में मेरा स्टेशन आ गया।
Write a comment ...