हाल ही में एक ख़बर सामने आयी, जिसमें बताया गया था कि देश के एक ज़िला प्रशासन ने कोरोना लॉकडाउन के समय घर लौट रहे प्रवासी मज़दूरों से ली गई साईकिलों को नीलाम कर दिया। इससे मिलने वाला धन सरकारी ख़जाने में जाएगा। हालांकि मज़दूरों से लेते समय इन साईकिलों के लिए उनको टोकन दिए गए थे ताकि बाद में उन्हें वापिस लौटाई जा सकें।
फिर कोरोना तालाबंदी के समय को सम्पूर्णता में याद किया तो ध्यान आया कि संकट के समय घर जाने के लिए प्रवासी मज़दूर कैसे अपने लिए साधनों का इंतज़ाम कर रहे थे। जिनके पास कुछ नहीं था वो पैदल ही सैंकड़ों किलोमीटर के सफ़र पर निकल गए थे। ऐसे ही पैदल चल रहे मज़दूरों का एक समूह रेल की पटरी पर कटा मिला था। वहीं पास में ट्रैक पर बिखरी रोटियों को हम कितना याद रख पाए, मैं नहीं जानता।
एक खतरनाक महामारी के भय से सरकार ने आनन-फानन में सम्पूर्ण लॉकडाउन जैसा फ़ैसला लिया था। अब इस निर्णय के विभिन्न पहलुओं को नजरअंदाज भी कर दें तो एक बात तो तय है कि लोग घर में भूखे रहकर तो लॉकडाउन के नियमों का पालन नहीं ही करने वाले थे। जब पेट की भूख पहले मारने दौड़ेगी तो एक न दिखने वाले वायरस को लोग भूल ही जाएंगे।
ऐसी स्थिति में, घर पहुँचने के लिए बहुत से मज़दूरों ने साईकिल का सहारा लिया। जिनके पास खुद की साईकिल नहीं थी उन्होंने अपनी बची-खुची जमापूंजी खर्च कर साईकिलों का इंतज़ाम किया। लोगों ने घर जाने के लिए गहने तक बेचकर साईकिल खरीदी।
और तो और इस संकट से बचने के लिए साईकिलें चुराई भी गयीं। ऐसे ही एक क़िस्से में एक ज़रूरतमंद प्रवासी मज़दूर ने बिना बताए किसी की साईकिल ले तो ली। लेकिन ऐसा करते समय एक ख़त पीछे छोड़ दिया, जिसमें उसने अपने इस काम के लिए मजबूरी का हवाला देते हुए माफी माँगी।
इससे इतना तो पता चलता है कि उस समय साईकिल कितने काम की चीज थी। और हो भी क्यूं ना, सफर का एक ऐसा साधन जो सस्ता और टिकाऊ है। जिसे खेतों की पगडंडियों पर चलाने से लेकर, नदी-नालों में सिर पर उठाकर पार किया जा सकता है, और किसी मोटरवाहन में लिफ्ट मिलने पर उसमें भी चढाया जा सकता है। ऐसे में, बहुत से लोगों के लिए यह एकमात्र विकल्प बनकर उभरा।
एक ओर सरकार का नियमों के लिए कड़ा फरमान था और दूसरी तरफ़ करोड़ों पेट काटती भूख। आखिर भूख का बाँध टूट पड़ा। वह जान हथेली पर ले, साईकिलों पर सवार होकर या पैदल ही अंतहीन लगने वाली यात्राओं पर निकल पड़ी।
ऐसे में सरकार को ध्यान आया कि साईकिलों को रोकना है तो भूख का हल निकालो। जगह-जगह सरकारी क्वारंटाइन सेंटर बने थे, वहाँ खाने के इंतज़ामों के आदेश हुए और भूख को क्वारंटाइन करने के भी प्रयास हुए। उससे भूख को कुछ हद तक शांत करना मुमकिन भी हुआ।
पर भूख तो दिन में तीन बार दस्तक देती है। एक-दो बार में कोई जवाब ना मिले तो फिर सलाखें भूख को क़ैद में नहीं रोक सकती। और रोकें भी किस मुँह से, भूख से नजरें मिला पाना आसान थोड़े है। भूख की आँखें आपके अंदर तक झाँककर, आपकी असलियत बता देती हैं।
भूख को कई जगह 14 दिन के निश्चित समय से पहले भी आज़ाद किया जाने लगा। कहीं-2 उसे बसों और ट्रकों में बिठाकर विदा किया गया। तो कहीं उसे उसी हालत में छोड़ा गया जिसमें रोका था। लेकिन बहुत सी जगहों पर भूख को तो जाने दिया गया, पर उसकी सवारी पीछे छूट गई। वही साईकिल जिसके लिए वो लोग अपना सब कुछ लुटा चुके थे, उसे कितनी आसानी से नई सवारी मिलते ही पीछे छोड़ चले।
लेकिन इतना तो ज़रूर हुआ कि हमने विभाजन के बाद का सबसे बड़ा प्रवास देखा। विचित्र बात यह थी कि बँटवारे के समय वाले प्रवास में प्रवासी चाहते थे कि हमें किसी तरह पुलिस या फौज मिल जाए और हमें स्थानीय लोगों से टकराते हुए न जाना पड़े क्योंकि वो लूट-खसौट और मार-काट कर सकते थे। लेकिन इस बार प्रवासी चाहते थे कि किसी तरह पुलिस से बचकर गाँव-गाँव जाते हुए घर पहुँच जाएं।
ख़ैर, ये सब बीता और कोरोना के नियमों को लेकर बहुत कुछ सही-गलत होता रहा। लेकिन इसके लगभग एक साल बाद अप्रैल 2021 में कुछ अलग हुआ। अब कुछ राज्यों में चुनाव हो रहे थे और छोटे से लेकर देश के सबसे बड़े नेता तक सब पूरी भीड़-भरी रैलियाँ कर रहे थे। कोरोना के मामले लगातार बहुत तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन तब भी नेताओं की यात्राएँ और रैलियाँ नहीं रुकी।
…. और उसके बाद देश ने जो देखा, उसके लिए कोई तैयार नहीं था। अचानक मामलों में आई बढ़ोतरी के कारण रोज़ देश में हज़ारों लोगों ने अपनी जान गँवाई। पेट की भूख से जो नुक़सान नहीं हुआ था, सत्ता की भूख ने वो करवा दिया।
लेकिन इसके लिए किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया। भीड़ कम करके, कुछ कोरोना के नियमों का पालन करने के कोई प्रयास नहीं हुए। किसी नेता के ऐसी भीड़ को आयोजित करने के लिए हेलीकॉप्टर नहीं रुके। किसी को क्वारंटाइन नहीं करवाया गया। दूसरी तरफ़, बहुत से लोगों के साईकिल जमा करते समय के वो टोकन काम नहीं आए और साईकिलें पीछे छूटकर नीलाम हो गई।
जहाँ एक और भूख की साईकिलें नीलाम हुई, वहीं लोगों ने उन्हीं नेताओं को फिर सत्ता की सवारी कराई।
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