तमस (उपन्यास) - पुस्तक समीक्षा

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक भीष्म साहनी का बेहद प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' सन् 1972 में प्रकाशित हुआ। 'तमस' का अर्थ होता है 'अंधकार'।

भीष्म साहनी ने 'तमस' उपन्यास के जरिए साम्प्रदायिक वैमनस्य की एक ऐसी कहानी कहने की कोशिश की है, जिसे पढ़कर पाठक दंगों की पूरी संरचना के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। यह सुनने में बड़ा अटपटा लग सकता है कि दंगे की भी एक संरचना होती है। लेकिन लेखक ने जिस क़ाबिलियत से भारत विभाजन से कुछ ही दिन पहले फैले साम्प्रदायिक उन्माद की ये कहानी लिखी है, उसे पढ़कर यह कहना गलत नहीं होगा कि दंगों की भी एक संरचना होती है। उनकी पृष्ठभूमि में कुछ योजनाएं, कुछ इतिहास (सच्चा और झूठा), अफवाहें और विभिन्न समूहों का एक दूसरे के प्रति नज़रिया किस तरह काम करते हैं, यह तमस के माध्यम से बेहद सरलता से समझा जा सकता है।

दरअसल 'भीष्म साहनी' का जन्म साल 1915 में रावलपिंडी में हुआ था। उन्होंने आज़ादी से पहले मार्च 1947 में रावलपिंडी में हुए दंगों को अपनी आंखों से देखा था। लेकिन 'तमस' लिखने का ख्याल उन्हें मुंबई के पास स्थित भिवंडी में साल 1970 में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद आया। भीष्म साहनी ने इस बारे में कहा है, "मुझे ठीक से याद नहीं कि कब बम्बई के निकट, भिवंडी नगर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। पर मुझे इतना याद है कि उन दंगों के बाद मैंने तमस लिखना आरम्भ किया था.... यह सचमुच अचानक ही हुआ, पर जब क़लम उठाई और काग़ज़ सामने रखा तो ध्यान रावलपिंडी के दंगों की और चला गया।"

उपन्यास में 'नत्थू' नाम का एक किरदार है। जो समाज के निचले तबक़े का एक ग़रीब और कमज़ोर व्यक्ति है। उपन्यास के आरंभ में अनजाने ही वह एक ऐसा काम कर रहा होता है, जो उपन्यास की कहानी में एक बड़ी भूमिका निभाता है। उपन्यास का शुरुआती घटनाक्रम ही पाठक को बाँध लेने वाला है।

'तमस' अलग-अलग तबक़ों के अच्छे-बुरे किरदारों की कहानी बताता है। लेकिन उनमें से कोई भी मुख्य किरदार की तरह उभरकर सामने आता नजर नहीं आता। उस वक़्त फैला हुआ उन्माद ही एक तरह से इन सब की कहानी कहता दिख रहा है। उपन्यास के किरदार जाने-पहचाने से लगते हैं। पाठक आराम से यह समझ सकता है कि समाज के कौन लोग उपद्रव के ऐसे माहौल में फँस जाते हैं और यह किस तरह उनको प्रभावित करता है। साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि कौन लोग इससे बचे रहते हैं।

(Pic-1)
(Pic-2) Pic-1&2 (लेखक ने उपद्रव के बाद लोगों की स्थिति का अच्छा वर्णन किया है)

ऐसे माहौल में मनुष्यता क्या किरदार निभा सकती है और भावनाएं इंसान से क्या-कुछ करवा देती हैं, यह सब बेहद कम जटिलता से कहानी कह जाती है। कहानी दंगों के समय सत्ता में बैठे या इनसे अप्रभावित लोगों का भी विचित्र चित्र पेश करती है।

अंततः उपन्यास यह भी दिखाता है कि दंगों के बाद की स्थिति भी कैसे उनके बारे में कितना कुछ कहती है। कैसे लोग भावनाओं की क़ैद में अपनों को और अपनी सालों की जमा-पूंजी को खोकर एक अजीब शून्यता महसूस करते हैं। ठीक उसी समय संपन्न लोगों के इन उपद्रवों से पहले और उनके बाद का व्यवहार भी एक अलग ही सत्य की ओर इशारा करता है।

साल 1975 में 'साहित्य अकादमी' से पुरस्कृत इस कृति के बारे में सब कुछ यहाँ कह पाना तो संभव नहीं है। परंतु इसे पढ़ना और महसूस करना एक सीखने वाला अनुभव अवश्य कहा जा सकता है। उपन्यास 310 पृष्ठ का होने के बावजूद, लिखने की गुणवत्ता और अच्छी छपाई की वजह से लंबा नहीं मालूम होता।

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली।

संस्करण: 21वां (2019)।

Write a comment ...

Write a comment ...