इंसान बिना कैसी होती कुत्तों की ज़िंदगी?

सुप्रीम कोर्ट ने जब बीते दिनों दिल्ली और आसपास के शहरों के सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर शेल्टर होम्स में बंद करने का निर्देश दिया, तब सबसे पहला ख्याल ये आया कि अगर इस निर्देश का पूरी तरह पालन हो जाता है, तो ये अपने आप में कितनी अनोखी घटना होगी. हमारे बीच सदियों से रहने वाले आवारा कुत्तों को अचानक पूरी तरह हटा देने का फैसला कोई सामान्य घटना नहीं हो सकती.

हालांकि इस फैसले के लिए जिम्मेदार कारणों को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और इंसानों की जान पर खतरा हो तो कुछ उचित कदम तो ज़रूर उठाने पड़ेंगे. अब सुप्रीम कोर्ट ने इंसानों की सुरक्षा को भी ध्यान में रखते हुए एक प्रैक्टिकल समाधान का निर्देश दिया है.

लेकिन पिछले कुछ हफ्तों से देश में जिस मुद्दे पर इतनी चर्चा हो रही है और कुत्तों को पूरी तरह हटाने के जिस फैसले को बहुत से लोगों ने बिल्कुल सामान्य फैसले की तरह स्वीकार कर लिया, उसपर चर्चा करनी तो बनती है.

हज़ारों साल का साथी है कुत्ता

अदालत का वो फैसला कितना बड़ा था ये जानने के लिए हमें समझना होगा कि कुत्ते आखिर कितने लंबे अरसे से इंसानों के बीच रह रहे हैं? कुछ सौ साल... 1,000 साल... या फिर 5,000 साल? दरअसल, आर्कियोलॉजिकल दस्तावेजों के मुताबिक कुत्ते कम से कम 14 हज़ार साल से इंसानी बस्तियों में रह रहे हैं. वहीं कुछ अनुमान इस टाइमलाइन को 30 हजार साल से भी ज्यादा पीछे ले जाते हैं. यानि जब इंसान ने खेती इजाद भी नहीं की थी और उसने परमानेंट सेटलमेंट्स में रहना शुरू भी नहीं किया था, तबसे कुत्ता किसी न किसी तरीके से इंसानों के साथ रहा है. उस समय कुत्ता शिकार करने में मदद करने से लेकर सुरक्षा के लिए इंसान का भरोसेमंद साथी रहा है. इतना ही नहीं, कुत्तों और इंसानों के बीच भावनात्मक लगाव का कोई सुबूत देने की ज़रूरत नहीं है. लगभग हम सबने ही महसूस किया होगा कि हमारे जीवन में कुत्ते बाकी किसी भी दूसरे जानवर से क्यूं अलग हैं. ये मानी हुई बात है कि कुत्ते इंसानों के इशारों को ही नहीं, बल्कि हमारी छोटी-छोटी भावनाओं को भी समझते हैं और उनपर प्रतिक्रिया देते हैं.

इंसानों के बिना भेड़िए से नहीं बनता कुत्ता?

Siberian Husky (sitting), Wolf (standing) [Source:X]

चूंकि कुत्तों के वंशज भेड़िए हैं और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं, इसलिए जानकारों का मानना है कि कुत्तों को जिस रूप में हम जानते हैं, वो हजारों साल तक इंसानों के साथ रहकर ही ऐसे बने हैं. यानि इंसानों की बस्तियों में रहे बिना भेड़िए evolve होकर कुत्ते बन ही नहीं सकते थे.

बिना इंसानों के भेड़ियों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व इतना दोस्ताना और इमोशंस को समझने वाला नहीं हो सकता था. और तो और बिना कुत्तों के साथ के मौजूदा इंसानी सभ्यता की भी इस रूप में विकसित होने की संभावना कम थी. ऐसे में जो नस्ल हमारी ज़रूरतों के हिसाब से evolve हुई हो और जिनके इतिहास को हमसे अलग किया ही नहीं जा सकता हो, उन्हें अचानक हमसे अलग करना सामान्य कैसे हो सकता है?

[Source:X]

आज की समस्या का समाधान ज़रूरी

हालांकि इस फैसले के पक्ष में आवाज उठाने वाले लोगों की दलीलों में दम तो ज़रूर है. हर साल कुत्ते देश में लाखों लोगों को काटते हैं और सैकड़ों लोगों को रेबीज जैसी डरावनी और जानलेवा बीमारी के कारण अपनी जान गंवानी पड़ती है. और ये भी सच है कि दिल्ली एनसीआर के इलाके में कुत्तों की आबादी का अनुपात काफी ज़्यादा हो गया है. अनुमानों के मुताबिक इस इलाके में करीब 8-10 लाख कुत्ते रहते हैं. जो इतने छोटे क्षेत्र के लिए काफी ज्यादा है. वहीं इस इलाके में इंसानी आबादी का जनसंख्या घनत्व भी काफी है, इससे कुत्तों और इंसानों के बीच टकराव के मौके और भी ज्यादा बनते हैं. ऐसे में कुछ ना करने का तो कोई विकल्प ही नहीं है.

कुत्तों को बंद करना कितना प्रैक्टिकल?

लेकिन इतनी बड़ी संख्या में आवारा कुत्तों से निपटने के लिए उन्हें शेल्टर होम्स में बंद करना भी संभव नहीं था. एक जगह अगर हज़ारों कुत्तों को भी रखा जाए, तो भी इस तरह के बड़े-बड़े सैकड़ों शेल्टर्स की ज़रूरत पड़ेगी. इन शेल्टर्स को मेनटेन करने में ही सालभर का खर्च हजारों करोड़ रुपए बैठता है. फिर ये तो सिर्फ मेंटेनेंस का खर्च है, इन शेल्टर्स को तैयार करने में और ज्यादा रुपए खर्च होने का अनुमान बनता है.

ऐसे में कुत्तों को sterlize करना, vaccinate करना और समाज के तौर पर उनका ख्याल रखना ही एक प्रैक्टिकल सोल्यूशन है. हालांकि कुछ ज़्यादा aggressive कुत्तों को लेकर थोड़े कड़े तरीके अपनाए जा सकते हैं. लेकिन एक जीव, जिसका हमसे अलग कोई इतिहास और अस्तित्व ही नहीं है और जिसके योगदान के बिना आज की इंसानी सभ्यता शायद संभव ही नहीं होती, उसे हम पूरी तरह हाशिए पर धकेल दें, ये ठीक मालूम नहीं पड़ता.

जीवों के साथ रहने का लंबा इतिहास

भारत में अलग-अलग जीवों के साथ जिस तरह का सामंजस्य हमारे समाज में सदियों से रहा है, उसकी दुनियाभर में एक अलग पहचान है. चाहे फिर वो गलियों-सड़कों पर फिरने वाले कुत्ते, गाय या दूसरे जानवर हों या अलग-अलग धार्मिक स्थानों समेत शहरों में मिलने वाले बंदर. ऐसे में हमें इंसानों और जानवरों के बीच और बेहतर सामंजस्य के लिए एक संतुलन की ज़रूरत तो है, लेकिन सदियों की इस पहचान को अचानक पलटना कितना सही होता, ये सवाल आपके लिए...

(नोट: मुझे बचपन में कुत्ते ने काटा भी है और मैं ये भी मानता हूं कि कुछ स्थितियों में वे बहुत खतरनाक हो सकते हैं. ऐसे में, मैं यथास्थिति के पक्ष में बिल्कुल नहीं हूं और इसके समाधान के लिए क़दम उठाना बहुत ज़रूरी है.)

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